वंदना

वंदना

झारखण्ड  के अधिकांश कृषि आधारित गाँवों में भादों और आश्चिन के महीने में बोये जाने बाली फसलों के बाद प्रवासी दो लोकप्रिय पदों की तैयारी में लग जाते हैं। भादो के महीने में "करम पर्व' या करमा और आश्चिन महीने में वन्दना ।

करमा पर्व में करम पेड़ को पूजा की जाती है और बन्दना  में खेती में प्रयुक्त होने वाले जानवरों की पूजा की जाती है । त्योहारों के अवसर यर दीबारों और फर्श को सजाने-संवारने की परम्परा हमारे फूं देश में किसी न किसी रूप में वर्तमान हैं। इस परम्परा का निर्वाह आज भी आदिवासी जिस शुद्धता के साथ करते हैं वह अनुकरणीय हैं। त्योहारों में लोक चित्रकला के माध्यम से ग्रामवासी अपनी भावनाओं को, सृजनशीलता एवं अपने आनन्द की अभिव्यक्ति करते हैं। इस अवसर पर अपने परिवेश एवं घर आँगन की साफ-स्रफाई की जाती है। भूमि एवं दीवारों के गड्ढे  भरे जाते हैं। फिर उनकर मिटूटी का लेप लगाया जाता है । संताल अपने घरों की दीवारों को अलग-अलग रंग की मिटूटी से आकर्षक तरीके से लीपते है मिटट्रो की विभिन्न रंगों की चौडी यहिड़यों और ज्यामितीय आकारों से दीवारों क्रो मजाया जाता है। गीली मिटूटी की लेप यर उपैग्रलिथों के प्रयोग से लहरदार आकर्षक पैटर्न बनाये जाते हैं। फिर उनपर पक्षी, जानवर, मानवाकृति या फूलपत्तियाँ आदि उकेरी जातीहैं। इस काम  को पूरी तरह घर की महिलाएँ ही करती हैं और यह पूरी लगन और निष्ठा से किया जाता है।

घर के सामने चाली दीवार परम्परागत तरीके से,बड़ी  मेहनत से विशेष 'फ्रेस्को' चित्र के लिये तैयार की जाती हैं। दीवारों पर पहला लेप चिकनी मिटूटी में जूट एवं लकडी के बुराई को मिलाकर किया जाता है। हस सतह के " सूखने के बद खडी मिटूटी का लेप लगाया जाता हैं। फिर उसे चिकने पत्थर और एक जंगली पौधे की छाल से रराड़ - कर चिकना बनाया जाता है और अंत में खेतों में पाये जाने "बवाले केचुए के पेट से निकली अति चिकनी मिटती का घोल लगाया जाता हैं। जब यह सतह सूख कर बिल्कुल समतल हो जाती है तो इस पर रंग की पृष्ठभूमि तैयार क्री जाती हैं। तत्पश्चात् इस दीवार के मध्य से चित्रकारी की शुरूआत की जाती है और विभिन्न आकारों से इसे भरा जाता हैं। विषय वस्तु फूंल-पत्ते, पशु-पस्ती या लोक कश्राएँ होती हैं। अंत में, इन चित्रों के चारों अं।आलंकारिक सोया रेखा के रूप में लताओं, लहरदार रेखाओं या ज्यामितीय आकारों का अंकन किया जाता है |

घर के द्वार यर या आँगन में 'अल्पना' बनाने का रिवाज भी है । पुल-पतियों की आकृतियों से बनाई गई अपना के बीच में 'देवी' के पैरों की आकृतियों" बनाई जाती हैं।

आदिवासियों की यह सहज कला उनके देनिक जीवन का महत्वपूर्ण अंग है जिसका उपयोग वे  विशेष अवसरों पर, उत्सवों में या पारस्परिक पूंजा- अर्चना के समय करते हैं। आदिवासी कला अत्यधिक स्वतंत्र, गहन,अपने दैनिक जीवन के आकलन के साथ स्पष्ट रहस्मय और काल्पनिक सौन्दर्य से पूर्ग हैं। वे मात्र  देखी आकृतियों" ही नहीं बनाते, बल्कि जो महसूस करते हैं, जानते हैं, सोचते हैं वं। सब कुछ सहज भाव से चित्रित करते हैं।

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