झारखण्ड के लोक-वाद्य
कभी खुद की ताल यर झूमने के लिए तो कभी जंगली जानवरों को खुद से दूर रखने के लिए बने वाद्ययंत्र । जब संगीत की ध्वनि ने रागों का मर्म समझाया, तो हर अवसर पर संगीत और नृत्य ही जीवन की परिभाषा बनणाये। छोटानारापुर एवं संताल परगना अंचल झारखण्ड के प्रमुख जनजाति-क्षेत्र हैं। 'झारखण्ड' का शाब्दिक अर्थ जंगल-क्षेत्र है। 'झार' अर्थात् जंगल एवं 'खण्ड' अर्थात् क्षेत्र या इलाका। वस्तुत: झारखण्ड नाम बहुत पुराना हैं। सघन जंगल, कतार-बद्ध पर्वत श्रेणियों क्रो मद्देनजर रखते हुए हस क्षेत्र का नाम झारखण्ड पड़ा है| प्राचीन काल से विभिन्न प्रकार के वाद्यों का प्रचलन झारखण्ड क्षेत्र में होता आ रहा है। झारखण्डी लोकनृत्य तथा गीतों में वाद्यों का अपना विशिष्ट स्थान सदैव वना रहा । यहॉ के आदिवासी: संताल, मुंडा, कोल् , उरांव, खडिहुँया,कुर्मी , भूमिज आदि विभिन्न जनजाति के लोग पर्व-त्योहार, विबाह, पूजा आदि विभिन्न अवसरों पर होने बाले नृत्य गीतों में संगीत वहाँ का जमकर प्रयोग करते हैं। नृत्य-गीत, संगीत व वाद्य-वादन झारखण्ड वासियों का प्राण है,जो स्वाभाविक रूप से इनलोगों के अन्ताकस्था से स्पन्दित होकर प्रस्फुटित होता है। झारखण्ड के मुख्य लोक बाद्य निम्नाकिंत श्रेणियों के है : 1. त्तत्वाद्य 2. सुषिर वाद्य 3. अवनद्ध 4. घनवाद्य