वाद्य यन्त्र शिल्प
प्रायः सभी ललित कलाएं स्थानीय तत्वों के साथ ही विक्षित होती है और इसी कारन उनकी पृथक पहचान भी बानी रहती है | इसमें स्थानीय उपलब्ध साधनो और प्रक्रिति का विशेष महत्तव होता है , जिसके कारन कला एक विशिष्ट रूप ग्रहण कर अपनी निजी पहचान बनाती है | झारखण्ड की जनजातियों में पक्वा और अपक्वा मिटटी के बने पत्रों का भी अपना स्थान है | ये मृण्पात्रा केवल पत्रों तक ही सिमित न रहकर मृण शिल्पों के सुन्दर उदहारण भी है | नवपाषाण युग में आविष्कृत चाक पर आज भी ये मिटटी के बर्तन , खिलोने तथा दैनिक उपयोग की वस्तुतएं हाथ से तैयार की जाती है | मिटटी की मूर्तियां , खिलोने आदि पूरी तरह से हाथ से ही बनाये जाते है | इनमे चाक की सहायता न लेकर विभिन्न आकारों की छुरियां एवं सूओं की सहायता से इन्हे आकर - प्रकार दिए जाता है | इनके अतिरिक्त चूल्हे सैडरियाँ आदि भी मिटटी से तैयार किआ जाते है | झारखण्ड में मृण - शिल्प का काम वैसे तो सरवयाप्त है किन्तु लोहरदग्गा, रांची, देओघर एवं ुमका आदि स्थानों पर इस शिप की विशेष पहचान स्थापित हुई है |