लेदरा शिल्प
प्रागैतिहासिक काल से लेकर आधुनिक काल तक मुख्यतया स्त्रियाँ ही विभिन्न शिल्पों की जन्मदातृ मानी जाती हैं। विशेषकर लोककलाओं एवं शिल्पों की संवाहक तो आज भी हमारे समाज की महिलाएँ ही हैं। झारखंड के हजारीबाग क्षेत्र के लेदरा शिल्प की संवाहक भी इस क्षेत्र की ग्रामीण महिलाएँ की हैं। लेदरा अर्थात् फटे-पुराने कपड़े। इन्हीं फटे-पुराने कपडों से एक सुन्दर कृति का निर्माण किया जाता है जो बच्चों-बूढों के ओढ़ने-बिछाने के काम आता है। वस्तुत: कथरी का ही आधुनिक एवं लोकप्रिय रूप है। लेदरा शिल्प में फटे-पुराने कपडों की पंच-धि: तहें रजाई की तरह सिल दी जाती है। सिलाई स्थानीय तौर पर बने सूतों से की जाती है तथा सिलाई का डिजाइन भी कल्पनाशीलता के आधार पर तय किया जाता है। लेकिन इन डिजाइनों का अध्ययन करने पर पाया गया है कि इनमें सोहराई एवं कोहबर चित्रकला के डिजाइन भी बनाए गए हैं जिनका उदग इसको की गुफाओं में चित्रित चित्रों में पाया राया है। इस प्रकार प्रागैतिहासिक काल केडिजाइनों की परंपरा आज भी कोहबर, सोहराय तथा लेदरा शिल्पों में देखी जा सकती है। लेदरा तैयार करने में मुख्यत: पुरानी साडी अथवा छोती का इस्तेमाल होता है। चार पांच सरियों को साथ-साथ जमीन पर बिछा कर किनारों पर सिल दिए जाता है। यह संख्या साड्रियों की उपलब्दता-अनुउपलिअभ्धता के आधार पर घट बढ़ भी सकती है। बिछाई गई साडियों पर हल्दी सिन्दूर के अथवा कालिख के घोल से बाछित डिजाइन बना दिए जाते है। तब इस पर आवश्यकतानुसार विभिन्न रंगों के धागों से सिलाई कर दी जाती है और धागों के कारणा कपडे पर डिजाइन दिखने लगते है। इन डि।ज़।इनों को धागों की और भी महीन डिजाइनों से सजाया-सँबारा जाता है जिससे धीरे- धीरे यह लेदरा एक पाली रजाई का रूप प्राप्त कर लेता हैं|