धातु शिल्प

धातु शिल्प

metalcraft

धातु शिल्प का कार्य अत्यंत प्राचीन काल से झारखण्ड क्षेत्र के विभिन्न हिस्सों में असुर, बिरहोर, आदि जनजातियों द्वारा होता आ रहा है। इस संदर्भ में अलुवारा (प्रखंड चंदन कियारी, जिला बोकारो) से पुरातात्विक सर्वक्षण के दौरान पाए गए जैन तीर्थकर की अष्टधातु मुनियों की चर्चा की जा सकती है, जो वर्तमान में पटना संग्रहालय में संग्रहित है। स्थानीय तौर पर बाणद्रग्रॉ तथा घरेलू इस्तेमाल के बर्तनों का निर्माण तो काफी पहले से होता आ रहा है किंतु विशेष चर्चा का विषय धोकड़ा शैली में बने  पात्र है जो पारंपरिक तौर पर तो मापतोल की एक जनजाति इकाई 'पाइला' के रूप में बनाए जाते थे, पर अब अनेक उपयोगी एवं सजावट की वस्तुओं यथा दीपदान अथवा चिडिया की आकृति आदि का निर्माण भी किया जा रहा है।

ऐतिहासिक तौर पर तो असुर जनजाति के विषय में यह सर्वविदित है कि लौह अयस्कॉ को विगलित कर यह जाति लोहै के बाणाग्र, घरेलू बर्तनादि बनाती रहीं है, किंतु बिरहोर जनजाति के लोरा भी धातु शिल्प में सिद्धहस्त रहे है। अत: अभी धातु शिल्प के क्षेत्र में झारखण्ड में जो महत्वपूर्ण कार्यं हो रहा है वह है ढोकरा ' पात्रों का निर्माण, जो इस क्षेत्र में अत्यंत प्राचीन काल से निर्मित हो रहा है।

'लॉस्ट-वैक्स' पद्धति से इस प्रकार की कलाकृतियाँ झारखण्ड के अलावा आन्ध्रप्रदेश, छत्तीसराढ़, पश्चिम बंगाल एवं उडीसा में भी बनाई जाती है। यह विधि ' साइरे-परइयू' विधि का ही एक परिवर्तित रूप है।

धोकड़ा यादों में " पाइला है सबसे लोकप्रिय पात्र है जिससे चावल आदि मापने का काम किया जाता है।

'पाहला' एक स्मृतिचिह्न के रूप में देश-विदेश में अत्यन्त लोकप्रिय है। " पाइला हैं के अतिरिक्त धोकड़ा के अन्तर्गत पुष्ट रसोई के सामान्य बर्तन, सजावट के लिए पशु -पक्षी की मूर्तियाँ एवं मोमबत्ती स्टैंण्ड आदि भी अब बहुतायत से बनाए जाने लगे है। धोकड़। पात्रों का उत्पादन राँची जिला के लोहाडोह तथा हजारीबाग जिला के इचाक आदि स्थानों पर प्रमुखता से हो रहा है ।

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