उराँव
परिचय उराँव झारखंड की एक महत्वपूर्ण एवं बहुसंख्यक जनजाति है। संथाल के बाद इसका दूसरा स्थान है। 1994 की जनगणना के अनुसार उरांव की कुल जनसंख्या 1 137666 हैं |ये मुख्यत: पुराने जिले राँची (76 .1 9 प्रतिशत), पलामू (43-82 प्रतिशत), ब्रजारीवल (5 प्रतिशत), सिंहभूम (3 .62) तथा संथाल परगना (1 13 प्रतिशत) में पाये जाते है। उरांव अपनी भाषा में अपने को 'कुरुखु ' कहते हैं। कुरुखु शब्द का संबंध संस्कृत घातु 'कर्ष' ( हल चलाना ) से है, जो कर्षण से होकर कूपर, कुहुषर, कुरुखु हो गया । कर्षण से कुड़खर में परिवर्त्तन 'षा’ से 'ख' होना नासिक्ता से संबंध रखता है। ऐसा भी माना जाता है, कि कुरुखु नाम शायद मूल रुप से विलुप्त हुए द्रविड़ धातु से लिया गया है, जिसका अर्थ 'मानव' होता है। प्राय: सभी जनजातियों में अपने को कोई जाती न बता कर मात्र मानव कहने की परंपरा पाई जाती है। मुंडा या हो अपने को होरो (मानव) कहते हैं। ' कोल ' शब्द का जिसका प्रयोग सामूहिक रूप से पूरी जनजाति ( मुंडा भी ) के लिए होता लगता है, मूल अर्थ है - मानव । इसी तरह 'माले' (जनजाति) का अर्थ है जन | एश्किमो अपने को "इनुइट" कहते है। इसका भी अर्थ मुनष्य होता है। कालाहारी ' - मरुभूमि में रहने वाले 'बुशमैन' एव होटेनटोट ' अपने को 'खोई' कहते है, जिसका भी अर्थ मात्र 'मानव ' होता है। मानव में अभेद दर्शन जनजातियों की बहुत बड़ी विशेषता है, जिसका विकास ही अनेकता में एकता स्थापित कर सकता है।ऋग्वेद से जाया 'कृषाण' शब्द, 'जन' के बोधक रूप में प्रयुक्त हुआ है। वेद, ब्राह्मण और संहिता में "पांच - जन" हैं का उल्लेख हुआ है। इस नाम की उत्पत्ति का एक बड़ा रोचक वर्णन एक उराँव लोक - कथा में मिलता है| बहुत पहले, सुदूर अतीत में एक मुनि तपस्यावी, बिना अन्न-ज़ल के वर्षो तक एक ही मुद्रा में तपस्या में लीन रहे । इस दीर्घ काल में उनका शरीर बाल्मीकि या बाँबी के रूप में बदल गया, अर्थात् दीमक के ढेर से ढक गया । एक कटीली झाड़ी उग आई जिसका एक लम्बा - 33 उनके उर (छाती) में घुस गया । अंत में एक लकड़हारा भूल वश मुनि को दीमक का बांबी समझ कर कुलहरि के बेंत से आधात कर उसे तोड़ दिया किन्तु वह आश्चर्यचकित रह गया | जब एक जीवित पुरुष को पाया । इस अशिष्ट ढंग से समाधि भंग होने से विचलित मुनि एकाएक खड़े हो गए । तब उनके सीने में धँसा हुआ काँटा टूट गया और रक्त बहने लगा । पृथवी (माता) पर खून के धब्बे नहीं पडे, इस इच्छा से उसे अपनी अंजुलि में भर लिया । जब उन्हें शौच-संवेग का अनुभव हुआ तो पते का दोना बना कर उसमें खून भर कर पास में ही छायादार जगह में रख दिया । इस खून से एक लड़का और एक लड़की (भाई -वहन) प्रकट हुए । तब मुनि यहाँ से चल पड़े । वहीं से मुनि को जाते देख उन लोगों ने कहा, रुकिए छोड़ कर मत जाइए । आपने ही हमें संसार में लाया है। हमारी जीविका कैसे चलेगी ? " मुनि ने उत्तर दिया, "तुम खेतिहर बनोगे । इस जंगल को साफ करो और खेती को अपना पेशा बनाओ ।" ये ही उरोंव के प्रथम पूर्वज (माता-पिता) थे जो मुनि के 'उर' के खून से उत्पन्न हुए थे। इसलिए 'उराँव' कहलाए । यहाँ यह ध्यातव्य है कि ठीक इसी प्रकार की कथाके चार वर्ण के उत्पत्ति के संबंध में भी है कि ब्रह्मा के सिर से व्रम्हाण, भुजाओं या वक्ष से क्षत्रिय, उदर से वैश्य और पैर से शूद्र हुए | शारीरिक रचना : प्रजातीय दृष्टि से उराँव को प्रोटो - आछोलंत्यड समूह में रखा जाता है। इनका कद छोटा , कपाल दीर्घा - संकीर्ण, नाक चौडी, रंग गहरा साँवला से लगभग काला और बाल काला, खुरदरा, कभी लहरदार या घुंघराला होता है। सर पर घने बाल किन्तु शरीर पर कम, जैसे- सीना, पैर में । आँखें मंझोली होती हैं, कभी छोटी भी और पुतलियाँ काली होती हैं। पैर पुष्ट और सीना चौड़ा होता है। नाक जड़ के पास धंसी होती है। होठ मोटे और ठुट्टी निकली होती है। रिजले द्वारा उरांव के मानवमितीय आंकड़ों से इनका औसत कद १६२.१ स.म अधिकतम 174 .4 से.मी. एवं न्यूनतम 148 से.नी. पाया गया । उसी प्रकार इनका औसतन कपाल-देशना (सेफालिक इंडेक्स ) ७५.४ औ, अधिकता, 87 और न्यूनतम 67 पाया गया | झारखंड के भौगालिक परिवेश ने उराँव के रंग और शरीर सौष्ठव को प्रभावित किया । यहाँ की ठंढी जलवायु के कारण इनका रंग दक्कन के पुरखों के घुच काला रंग से कुछ 'फीका पड़ा । इनके अवयव संतुलित, कंधे पुष्ट और पेर सबल होते है, इसीतिए तो दो मन का बोझ धो लेते से । कंधे पर सिका-भंगी या भार ढ़ोने में कठिनाई अनुभव नहीं करते | भोजन : उरोंव का मुख्य भोजन भात (उबाला चावल) और साग सब्जी है। गोंदली महुआ, जंगली कंद-मूल, साग-पात, महुआ फूल , अन्य फल फूल भी इनके भोजन का अंग है। चूडा भी खाते हैं | संपन्न उरोंव कई किस्म की दाल, कई प्रकार की सब्जियां खाते है | सामान्य लोग दाल कम खाते हैं। मांड में सांग सिझा कर, खासकर फूटकर साग और नमक हल्दी मिला कर एक प्रकार की लपसी बनाकर खाते है। तेल का प्रयोग कम होता है| दूघ-दही-घी दुर्लभ है। ये साहारी होते हैं। अंडा, मुर्गी तथा विभिन्न प्रकार के पशुओं का मांस खाते हैं। सामान्य लोगों को तो मांसाहार भोजन कभी - कभी ही मिल पाता है |अब शिकार तो इनका पेश रह नहीं गया, शौक है। कभी कभार शिकार कर लेते हैं। सभी तरह की मछली, पशु-पक्षी खाते हैं। चूहा और कौआ को चाव से खाते हैं। बन्दर मास उरोंव नहीं खाता । यह पूरे उरोंव समाज के लिए निषेध हैं। हडिया इनका प्रिय पेय है जिसका उपयोग जम कर करते हैं। देवी-देवता पर भी हडिया का तपावन चढाते है| भोज भात, समारोह-उत्सव या अतिथियों का स्वागत बिना हडिया के अधूरा माना है| सरहुल के अवसर पर घर का मालिक-मालकिन उपवास करते हैं। उसी तरह शादी पर ' वर-वधु भी एक दिन उपवास रखते हैं। सरहुल मनाये बिना मौसम के साग या फल नहीं खाते । अब हरिया की जगह अरखीं (महुआ शराब) का प्रचलन बहुत बढ़ गया है| खैनी तम्बाकू का प्रचलन हैं । ' वेशभूषा : उष्ण कटिबंधीय जलवायु प्रदेश में रहने के कारण उराँव कम वरत्रों में चला लेते थे। ये सफेद रंग के कपड़े पसंद करते थे। अब पुरुष धोती गंजी का प्रयोग 'हैं। परंपरागत 'केस्या' अभी भी प्रचलन में है जो पाँच गज लम्बा और एक डेढ हाथ चौरा कपड़ा होता है जिसके दोनों छोर पर रंगीन घागो से नक्काशी बनी रहती है। कमर में (कमरघनी) पहनते हैं। गरीब-देहाती भगवा का प्रयोग करते हैं। बाहर जाते समय पिछौरी (चादर) से शरीर ढक लेते हैं जो ढाई गज लम्बा और डेढ़ गज चौड़ा कपड़े का टुकड़ा होता है। जाड़े में 'बरखी ' का प्रयोग आम ढंग से होता है। धनी लोग कंबल-रजाई का भी प्रयोग करते है। सीर त्राण (टोपी, पगड़ी) सामान्यता प्रयोग में नहीं पाया जाता से । विशेष अवसर पर मुखिया पगड्री और छारी प्रयोग करता है। खस्पा (चप्पल) का प्रयोग करते हैं। बरसात में 'छुपी' (गंगू पता का) का प्रयोग पुरुष और बुधु (फ्तों से बना छाता) का प्रयोग करती हैं। बॉंस का छाता का प्रयोग विशेष कर खेती, रोपनी के समय या तेज वारिश में हाट जाते समय होता है। अब तो नये लोग पैंट, कमीज, कोट, जूता, मोजा चप्पल आदि का खूब प्रयोग करने लगे हैं ।घड़ी भी बांधने लगे हैं । आभूषण : आभूषण का शौक तो महिलाओं में स्वाभाविक है किन्तु गरीबी के कारण सामान्य उरांव महिलाएं सोने-चाँदी के आभूषण नहीं पहनती । कुछे एक धनी घर की स्त्रियाँ सोने चाँदी के गहने पहनती हैं। प्राय: उरांव महिलाओ के गहने पीतल, र्तोंबे, लोहे या अन्य सस्ती धातु के बने होते हैं। कौंच, बीज, धागे, कौडी जादि से भी गहने तैयार किए जाते हैं। गले में हँसुली, मनके की हार, या सिक्कों की हार, सिकडी पहनती हैं। कान में 'बिंदियों' या तरपत ,ऊपर कनी' और 'बीच कानि ', नाक में नक मुटरी व बेसर, उंगली में 'मुंडी (अंगूठी ) और कटरी और पेरों में 'पैडी' पहनती हैं। शादी के समय वधू द्वारा पैडी पहनना अनिवार्य माना जाता है। कलई से केहुनी तक सात पीतल का मोटा वाला और एक - एक रासनिया दोनों बाहों पर पहनती हैं। बाह, कान और गला खाली रहना (बिना किसी गहना स्त्रियाँ अच्छा नहीं मानती । जूड़े में कंघी व खोंगसो पहनती हैं। पुरुष भी कलाई में पीतल के बैड़ा और गले में कासी घास या कांच के दाने से बने हार पहनते हैं। केश को बंधे या सँवारे रखने के लिए माथे पैर पटुआ "पटुआ" (कपड़े का दुकड़ा) का प्रयोग करते हैं। जतरा या पर्व पर नाच के समय साहिल का काँटा, पंख सिर में खोसते हैं। ताबीज-जंतर भी पहनते हैं। उराँव में गोदना की प्रथा प्रचलित है। सात - आठ वर्ष की उम्र में ही लड़कियों के ललाट पर तीन ध|रियों और कनपटी पर दो घारिर्यों गोद दी जाती है। ११- 1 2 वर्ष की आयु में ऐसे ही ध|रिर्यों, बाँह, पीठ, सीना, और पैर में गोदवाती है। गोदना में फूल, चित्र आदि बनाया जाता है। गोदना को उराँव महिलाएँ बहुत महत्व देती है। इनके बीच एक कहावत है _ "मरने पर सव गहने उतार लिए जाते हैं, पर गोदना दूसरी दुनिया तक साथ जाता है।"