करमाली
परिचय : करमाली झारखण्ड की एक प्राचीन एवं लघु जनजाति है| ये पाषाण युग से ही इस क्षेत्र के निवासी माने जाते हैं| कुछ विद्वानों ने करमाली को मुंडा की एक शाखा माना है किन्तु लुहारी का धंधा अपना लेने के कारण मुंडा से निम्न स्तर के माने जाते है| मूलतः ये मुंडा और संथाल से ही अलग हुये समुदय के रूप में माने जाते है| इनकी भाषा कुरमाली है, जिसे कुछ हो भाषा की उपबोली मानते है| करमाली शिल्पकर होते हैं। प्राचीन काल से इनके पूर्वज राजा महाराजो के लिए अस्व-शस्त्र बनाते थे। भेडरा गाँव (बोकारो) लौह उपकरणों के लिए सदियों से विख्यात है। यह निर्माण कार्य करमाली जाती के लोगों द्वारा ही होता था | कहा जाता है कि शेरशाह के लिए हथियार यहीं बनाए जाते थे | कुछ विदेशियों ने इस गांवो को बिहार का सैफील्ड' कहा था ।करमाली को प्रोटो-आरट्रेत्तायड प्रजाति समूह में रखा जाता है| इनकी शरीररिक रचना की विशेषताएं हैं- छोटा/ माग्यम कद, कृश्णावर्ती त्वचा ,मद्धम चौरी नाक , लहराते काळा बाल , मध्यम होठ, गठीला शरीर आदि जो मुंडा से मिलते -जुलते है| करमाली से लोक-गीत, लोक कथा आदि की परंपरा है। इनके गीतों में ममता और करूणा है तथा प्रकृति के श्रृंगार का वर्णन मिलता है, पर्व-त्योंहार के भी गीत है| आवास - निवास : करमाली मुख्यतः हज़ारीबाग़ , संथाल परगना , रांची, बोकारो, सिंहिभूम आदि जिलों में पाये जाते हैं| इनके गाँव जंगली - पहाड़ी इलाकों में बेस है| ये प्रायः मिले-जुली 'गाँव से रहते हैं। ये प्रकृति प्रेमी ,शांति प्रिय और सहज सरल स्वभाव के होते है। इसीलिए दूर पहाडों एवं जंगलों में बसे - रासे गाँव में रहना पसंद करते है| संघर्ष से अलग रहने की आदत है इनमें | ये स्वतंत्र प्रेमी है| हज़ारीबाग़ और सिंघभूम के प्रत्येक गाँव में कुछ करमाली जरूर मिलते है| गाँव - घर : ये गाँव के एक टोले में बसते हैं। इनके घर सामान्यता मिट्टी के बने होते है| छप्पर खपरैल होती है। मिट्ठी की दीवार के बीच-बीच में लकड़ी के खंभों का प्रयोग किया जाता है जिससे घर को मजबूती मिलती है। खपडों के नीचे बाँस की पट्टियाँ बिछी रहती हैं। दरवाजे लकड़ी के होते हैं जिसे वे स्वयं बनाते हैं। घर आयताकार होता है। घरों में प्रायः : आंगन नहीं होता । कुछे एक विशेष घरों में ढाबा, आँगन और बारी देखने को मिलते है| पक्के घर तो इक्के - दुक्के पाये जाते हैं। घर में रसोई स्थान और देवस्थल (सिरा पिऱरा ) का अलग प्रबंध रहता है। घर से सटे गोहाल भी होता है। प्राय: घर के बरामदे में पशुओं को रखा जाता है। आगंन या आगंन के बाहर सूअर बाड़ा बना होता है। घर में खिड़कियाँ प्राय: नहीं होती ।घरेलु उपकरणों में लकड़ी के सामान जैसे खटिया, मचिया , बाडी (बेंच) आदि तथा गृहस्थी के सामान जैसे सूप, झाड़ू , चटाई, चलनी, जाता, ढेकी , भार, बहिंगा , तराजू , बैठी (चिलोही ),छुरी , मिट्टी के बर्त्तन घर्रा , हादी , तवा , पैला, पारी, ढक्ली, टोकरी, चिमटा एवं ालिमिनियम आदि के बर्त्तन वगैरह मिलते हैं। कृषि उपकरणों में कोडी, खुरपी, हसुंआ, सावर, तंगी , हर-पार, जीती, जुआठ आदि इनके घरों में पाये जाते हैं। लुहारगिरोपरपरागत पेशा है। इस उद्योग के सामान्य उपकरण भाथी , नहाय, धाना, सड़सी, छेनी हथोड़ी -हथोड़ा , कुटाप्ती, पंचु, चपुवा आदि औजार भी इनके यहाँ मिलते हैं। इसके अतिरिक्त शिकार करने के लिए तीर धनुष, तलवार, भाला , आदि तथा मछली पकड़ने लिए जाल, कुंमनी, बंसी, घोंघी आदि रखते हैं। वाद्य-यंत्रों में मांदर, ढोल, नगाड़ा, सहनाई, तुरही, झाल, सारंगी, बॉंसुरी, आदि मुख्य हैं ।