बंजारा

बंजारा

banjara

परिचय : झारखंड की बत्तीस अनुसूचित जनजातियों में एक बनजारा भी है| गांव के सिवाने डेरा लगा कर बसने वाली  बनजारा जाति की परिगणना बिहार की एक अनुसूचित जनजाति के रूप  में 1956 में हुई । ये घुमक्कड़ लोग हैं और पूरे देश में घूमते रहते है| खुले आकाश के नीचे जहाँ जो जमीन इन्हें भा गई, डेरा डाल दिया जैसे- उस ज़मीं के वे ही मालिक हों, जैसे बादशाह हो । इनकी जनजातीय पहचान अब शेष नहीं रही  है |  जहाँ ठहर गए वहीं के हो गए। उसी स्थान की बीती, चाल -ढाल, रहन-सहन, रीती -रिवाज को अपनाने का भरपूर प्रयास करने के क्रम में इनकी जनजातीय विशेषता बहुत कम बच गयी है |

               'बनजारा' के पर्याय के रूप में बनजारी, वनसरी, वृन्जानी, बेपारी शब्द भी सम्बोधन के रूप में प्रचलित है। 'नाइक' शब्द का प्रयोग उपलब्धि के रूप में होता है। इनके निकठास्था जातियों में नट,कंजर , मदारी और पवेंरिया माने जाते हैं, किन्तु बनजारा जातीय समूह में अनेक समानान्तर जातियों है जैसे गुलगुलियाँ, कंजर, सीस, मदारी, भालू नचाने वाले नट, बाजीगर, पवैरिया, जडी-बूटी बेचने वाले, ठग आदि ।

हैदराबाद में पाए जाते वाले लम्बाड़े बनजारा की एक शाखा है। इनकी वेश भूषा ,रीति-रिवाज, घार्मिंक्र विश्वास, जीवन शैली, रूढियों संस्कार-बिधि, शारीरिक रचना और एक हद तक भाषा भी वनजारों से मिलती-जूलती है। इनका विलगाव महज कोई साढ़े तीन सौ वर्षो का है। ऐसा प्रमाण मिलता है कि 1630 ई. में स्थित 'बनजारा पहाड़ी इसकी पुस्टि करती है। आज भी इस पहाड़ी पर स्थित तालाब के पास कुछ बनजारे परिवार रहते है |लम्बाडी में प्रचलित कथाओं और किवदंतियों में बनजारों का उल्लेख मिलता है की आसफ खाँ के शासन काल में जंगी और ‘भंगा  नामक दो बनजारे नायक थे।सेन्सस रिपोर्ट 1941 के अनुसार बनजारा, लम्बाड़ा और माठुरा से घुमन्तु जातियां दूसरी जनजातियों से भिन्न हैं। ये दक्षिण की मूल  जनजाति नहीं हैं। औरंगज़ेब की सेनाओ के पीछे लगी राजपूताने से जाई और सारे राज्य से फैल गई ।

बनजारा का अर्थ घुमक्कड़ है। इनका इतिहास बहुत पुराना है। किसी समय में बनजारा शब्द किसी जाति या समुदाय विशेष का परिचायक था । इस शब्द की उत्पत्ति वनज शब्द से हुई है। कवीर के शब्दों में "वणज करे सो वाणिया " । वणाज से ही वाणज बना |

मुग़ल काल में और उससे पहले  भी हमारे देश में बंजारों की वाणिजीं चलती थी। अन्नाज: नमक, गुड, तेल, कपड़ा, सूत, कपास आदि से लेकर हीरे-जवाहरात और मोतियों तक का व्यापार व्यवसाय उस काल में करते थे। गुप्तकाल और उसके पहले पुराण काल तक बंजारा का उल्लेख मिलता है। नागपुर विश्वविधालय के उप क्लापति बैरिस्टर केदार नाथ ने वेद काल से बनजारों का पाया जाना माना है। तब बनजारे पशुओं का लेन देन करते थे।

किसी ने वनजारा शब्द की उत्पत्ति दो शब्दों के मेंल से 'वन' और 'चारक' माना है। जिसका अर्थ हुआ- वन में विचरण करने वाले । रिप्ले (1891) के अनुसार ये मवेशी और अन्नाज का व्यापार करते थे। इसलिए इन्हें विभिन्न स्थानों के बाजारों में भ्रमण करना परता था | इसका एक उपसमूह लाभणी  है जिसका उदूभव संस्कृत  के 'लवण' से हुआ है। इस प्रकार बंजारा  शब्द की उत्पत्ति गोलाकार (वणिक) से हुई प्रतीत होती है। प्राचीन काल  में से लदनी का कार्य  करते थे। एक जगह से दूसरी जगह सामान पशुओं पर लाद कर ले जाते थे। रसेल तथा हीरा लाल बनजारा के बोरे में लिखते हुए बतलाते हैं कि बंजारा ,बनजारी,लामने , मुकरी आदि सार्थवाह जातियों" है जो लटू (भास्वाही) बैलों को हांकते हुआ  माल ढोती थी। कहा जाता है कि ये राजपुताना के चारण भाट से जुड़े हैं ।
कम्बरलेग ने  बरार में पायी जाने वाली बनजारा जाति की चार शाखाओं में चारण को भी एक माना है जिसे सर्वाधिक संख्यक तथा अति दिलवा वर्ग बतलाया गया है। कर्नल टोंड ने भी चारण और भाट की चर्चा गीतकार या वंशावली -विशारद  या वेतातिक के रूप में की  है।

वास स्थान एवं वितरण :

घुमक्कड़ होने के कारण बनजारे पूरे देश में पाये जाते है| झारखण्ड  में बंजारा जाति संथाल परगना के राजमहल और दुमका अनुमंडल में संकेंद्रित है। 1941 की जनगणना में इस क्षेत्र में 46 परिवारों के बीच इनकी संख्या 252 थी | गोड्डा के आस -पास बसे चारण, भाट, दशीनी, राय, कबीश्वर आदि अपने को बनजारा ही बतलाते हैं। 1956 में ही इन्हें अनुसूचित जनजाति की सूची में सम्मितित किया गया ।


बंजारे  मध्य प्रदेश, हैदराबाद, राजस्थान आदि क्षेत्रों में भी मिलते है। 1911 की जनगणना के अनुसार वनजारों की संख्या मध्यप्रांत  (सेंट्रल ओविस) में 56,000 तथा बरार में ८०,००० थी। ये राजस्थान और मालवा में भी पाये जाते हैं। ऐसा कहा जाता है कि राजस्थान /राजपूताना के चारण व भात  एक ही जाति से निकले है और संभवत: ये बनजारा जाती के ही है|  हैदराबाद के लम्बाड़े बनजारा की ही एक शाखा है। हैदराबाद में इनकी संख्या 1,74,000 बतलायी गई है। यहीं इसके दो मुस्लिम  प्रवर्ग भी मिलते हैं- तुर्किया और मुकेरी । संभवत: इनलोगों ने औरंगजेब के समय इस्लाम  को कबूल किया होगा। ये राजपूत्ताना से ही मुगल सेना के पीछे लगे हुए यहाँ आए हैं|बनजारे उड़ीसा में अनुसूचित जनजाति हैं किन्तु क्नॉटक, हरियाणा, पंजाब सं हिमाचल प्रेदेश में अनुसूचित जाति के रूप  में सूचीबद्ध  हैं। मध्य प्रदेश में ये नाइक समुदाय के रूप  में विदित हैं और इन्हें पिछडे वर्ग की श्रेणी में रखा गया है। गुजरात, राजस्थान, तथा महाराष्ट्र में ये सामान्य श्रेणी में हैं ।
लम्बाड़े दक्षिण की मूल  जाति नहीं हैं। प्रचलित कथाओं और किवदंतियों के आधार पर माना जाता है कि वनजारों का एक दल 1630 ई. से हैदराबाद में आया। शायद ये राजस्थान (राजपूताना) से मुगल सेना के साथ आए। यहाँ इस घुमन्ति जाति के तीन भाग माने गए हैं :- बनजारे, लम्बाड़े और माथुरी । लम्बाडों का सामाजिक स्तर थोड़ा निचा समझा जाता है किन्तु इन जातियों पर बंजारों  के साथ खान-पान तो है, शादी-व्यवहार नहीं है। आज  भी दोनों की वेशभूषा, रीति-रिवाज, रुढियाँ, घार्मिक विश्वास, जीवन-यापन का,  शारीरिक बनावट, संस्कार-विधि और कुछ हद तक भाषा भी मिलती-जुलती है।
सेकंडों वर्षो के अलगाव-विलगाव से थोड़ा भेद जरूर जाया है। 1984 की जनगणना के अनुसार पुरे  भारत से बनजारों की संख्या 10925 है। विभिन्न उपजातियों में बाँट  कर, व्यवसाय-पेशा बदल कर एवं प्रव्रजित होकर सामान्य समाज" में घुल-मिल गए हैं। झारखंड में वस्तुत्त: बनजारा स्पष्ट रूप से उपलब्ध नहीं हैं। यह एक लुप्त प्राय: जनजाति है। आज झारखंड क्षेत्र में बनजारे दुर्लभ है। गोड्डा में कुछ भाट, दशीनी, राज हैं जो अपने को बनजारा कहते हैं | एक विशिष्ट बात यह है कि इनमें लिंगानुपात अधिक (1059 महिला प्रति हजार पुरुष) है।


आर्थिक व्यवस्था  :

बनजारे घुमन्तु जनजाति के हैं, किन्तु दूसरी आदिवासी जातियों  से या घुमन्तु बिरहोड़ से भी मिल हैं। ये पशुओं का व्यापार करते थे | मुगल, मराठा और , यूरोपीय सेना के लिए रसद और अन्य व्यावसायिक जिंसों  के यातायात का काम करते थे। शांति के समय अनाज और कपड़े का व्यापार करते थे। अंग्रेजों के आगमन के बाद यातायात के साधन विकसित हुए । रेल आइ । नर्व-नई सड़कें बनी । रेल और सडकों ने बनजारों के उक्त व्यवसाय को चौपट कर  दिया । अंग्रेज़-शासकों ने अन्य भारतीय उद्योग-धंधों को तो नष्ट किया ही इस परिश्रमी और व्यवसायी जाति को भी बर्बाद कर  दिया । इनके  खिलाफ बड़े कानून बनाए । बनजारे की वीर और साहसी होते हैं। इसलिए   व्यवसाय के छिन जाने के बाद कई तरह के धंधे  को अपना लिया। कुछ लोगों ने खेती - बरी और अन्य कई तरह के धंधो को अपना लिया । बनजारा कृषि-आधारित समुदाय है। पशुपालन इनका द्वितीयक पेशा है। ये नमक, नारियल, एवं अन्य सामग्री के पांरपरिक व्यापार में भी संलग्न पाये जाते हैं। कुछ कृषि -मजदूर के रूप में भी काम करते हैं। कुछ घूम…फिर कर जड़ी - बूटी, मधु, शिलाजीत वगैरह बेचने लगे हैं। कुछ नीस-हकीम वन कुछ असाध्य एवं गुप्त  रोगों का इलाज कर जीविका कमा  रहे हैं। बहुतो के पास जमीन नहीं के बराबर हैं। कुछ स्त्री -पुरुष खानों में भी काम करते है। इनके बीच एक श्रेणी गुलगुतिया है, जो पशु-पक्षियों का शिकार करता है और भिक्षाटन भी करता है। कुछ पेशेवर श्रेणियों हैं जैसे सँपेरा, मदारी आदि जो तमाशा दिखा कर रोजी-रोटी कमाते हैं। नाच - गान करने वाली भी एक श्रेणी है जो शिशु के जन्म या विवाह के अवसर पर गाना-बजाना, कर नेग मांगने आदि को मुख्य धंधा  बनाये हुए  है। परिवारिक आय में रिंत्रर्यों योगदान देती हैं। ये गोदना गोदत्ती हैं। इनकी औरतें नाचती-गाती हैं। इनका जीवन ही संगीत-प्रधान है। किसी के घर में बच्चे के जन्म लेने परगा-बजा कर नेग  लेने का धंधा  मुख्यत: इनकी पवरिया  श्रेणी ने अपना लिया है। इनकी औरतें भी जन्म के समय दरवाजे पर या आंगन में या व्याह के अवसर पर गाती नाचती हैं। बाकी उपहार-नेग  मिलता है। कुछ बनजारा महिलाएं देह-व्यापार भी करती हैं ।
बनजारे काफी परिश्रमी होते हैं। इनके परिश्रम की सभी प्रशंसा करते हैं। सड़क पर  और खानों में बनजारा पुरुषों एवं महिलाओं को काम करते पाया जाता है। रसेल और हीरालाल के अनुसार ये भास्वाहक और बैलगाड़ी संवाहक होते है। इनके बीच एक अपराधी श्रेणी भी पनप गई है, जो लूट पाट आदि अपराधों में प्रवृत हो गई  हैं। 'कंजर' ऐसे ही लोग होते हैं जो बाल-बच्चों, औरतों के साथ पशु और कुत्ते  (शिकारी) लेकर चलते हैं और मौका पाकर चोरी-डकैती करते हैं। इसी लिए इनकी गणना जरायम पेशा जातियों में होती है। 1981 की जनगणना के अनुसार इनके बीच कामगारों का प्रतिशत 55.84 है। इसमें  10.31 प्रतिशत कृषि कार्य और 28 .32 प्रतिशत वृति - मजदूर के रूप में हैं। 7 .84 प्रतिशत  अन्य सेवाओं में लगे हैं। कुछ शिक्षा और सेना-सेवा से भी हैं। इनकी आर्थिक स्थिति अत्यंत  दुर्बल और दुखद है।


भौतिक संस्कृति :

बनजारा मुख्यत: (98 .95 प्रतिशत) ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करते हैं। ये अति अल्प नैतिक साधनों के स्वामी होते हैं। ये बस्ती से दुर जंगलों-पहाडों में  रहते हैं। कुछ ही लोगों के घर होते हैं। घर की दीवारे मिटटी -गरि की होती है। उस पर बांस की कंडिर्यों डाल कर खपड़े के छप्पर बनाते हैं। घर प्राय: आयताकार होता है। घर में  दो-तीन कमरे होते हैं। ये प्राय: जहाँ-तहाँ घूमते रहते हैं। गाँव के सिवाने पर या सहारों  के किनारे एकांत स्थान पर डेरा-तन्बू डालकर, बनाकर कुछ दिनों तक टिके रहते हैं। ये अपने साथ सारे घरेलु सामान-उपकरण , चूल्हा - चौका के सामान तथा अपने धंधो  से संबंधित सभी कुछ लेकर चलते हैं। इनके वर्तन मिट्टी और अल्युमिनियम या अन्य धातु के होते हैं जो बाजार से खरीदे हुए होते हैं। अब स्टील बर्तनों का प्रचलन बढ़ गया है। ये साथ में कुत्ता जरुर रखते है जो इनकी सुरक्षा तो करता ही है, कभी शिकार से भी सहायता करता है। इनका भोजन  ‘जब जैसा, तब तैसा' होता है। ये प्राय: मांसाहारी होते हैं। जब जैसी  सुविधा  हुई, रोटी या चावल , दाल-सब्जी के साथ खा लेते हैं। दाल में चना , मुंग , कुल्थी का प्रयोग करते है। सरसों और मूंहुँग्रफ्लो के तेल का भी इस्तेमाल करते हैं। सामिष भोजन पंसद करते हैं और अवसर पाकर कुछ छोटे पशुओं एव पक्षियों का शिकार कर लेते हैं और बार्रे  प्रेम और चाव से उसे खाते हैं। देशी शराब का प्रचलन इनके यहाँ है। स्त्री-पुरुष दोनों तम्बाकू का सेवन करते हैं ।
इनकी पोशाक अनूठी और अपने ढंग की होती हैं। पुरुष धोती  और मिरजई किस्म का कुरता या कमीज़ पहनते हैं। धिर पर पाही बांधते हैं ।घुम्मक्कड़  होने के कारण पेरों में  जूता-चप्पत जरूर पहनते हैं जो विशेष ढंग के बने होते हैं। महिलाओँ की पोशाक अत्यंत आर्कषक होती है। इनका सामान्य वस्त्र घाघरा, ओढनी और कच्ची  हैं। इनकी रंगी-चुंगी, चट्टे-बट्टे और कौंच, धुघंरू वाली पोशाक बहौत सुन्दर लगती है। किशोरी से लेकर प्रोढ़ा  तक घाघरा-चोली पहनती हैं। चोली तम्बी और बटनदार कुर्ती की तरह होती है। उसमें वेल-बुते  भी बने होते हैं। स्त्रियाँ मोटे, भारी-मरकम लंहगे अपने हाथ से सीकर पहनती हैं। मशीन  के टांके की सिलाई वाला कपड़ा पहनना निषिद्ध माना जाता है। चोली भी मोटे कपड़े की और हाथ की लिली हुई रहती है। औढ़नी तो बनजारा औरतों का अनिवार्य वस्त्र है। लंहगे, चोली और ओढनी पर कोंच टांके जाते हैं। कसीदा काढा जाता हैं। ओढ़नी  की गोद में धुघंरु सीसे रहते हैं। वस्त्रो  पर कढ़ाई -चित्रकारी इनकी क्लात्मक विशिष्टता है। आभूषण का प्रयोग स्त्री-पुरुष दोनों करते हैं। पुरुष प्राय: कमान, जाती, कुरता, खादी की धोती, साठ हाथ की पगड़ी , सादा जूता, काँख में कसीदे की पेशगी, कमर में कादोरा, हाथ में करे और कान में सोने की सुक्लिं पहनते है, कनीसी भी पहनते हैं ।
महिलाएँ हाथ में लक्खी या हाथी दांत की चूड़ियाँ पहनती है। गले में काँच की मणियों की माला और पैर में पीतल की पैंजनी पहनती है। बालों से घुखरू टोफ्लो गहने का प्रयोग करती हैं। स्त्रियाँ मतों तक नहाती नहीं हैं। कपड़े भी इस डर से जल्दी नहीं बीती कि उनसे लगे कांच फूट न जाये । बंजारों  की भाषा मिली-जुली है। यह न तो शुद्ध मारवाड़ी है, न शुद्ध दक्षिणी भाग की। इसका मूत रूप काफी विकृत हो गया है। इनकी भाषा से गुजराती, कनारी , मराठी' आदि का सम्मिश्रण पाया जाता है, किन्तु उसका मूल  मारवाड़ी रूप पूरी तरह नष्ट नहीं हो पाया है। उनकी भाषा को लम्बाडी भी कहते है। हिन्दी भाषी क्षेत्रों से घूमते रहने के कारण हिन्दी बोलना-भी  सीख चुके हैं किन्तु उच्चारण कुछ भिन्न होता है।
बंजारों  में शिक्षा का अभाव है। 1981 की जनग जनगणनानुसार इनसे शिक्षा का प्रतिशत 16.94 है जिसमें पुरुषों के बीच प्रतिशत 3.37 और महित्ताओं में भी 4.37 है। इनसे शिक्षा का अभाव तो है, परन्तु कई तरह के कौशल  ये जानते हैं। वन औषधियों या जडी बूटियों की इन्हें अच्छी जानकारी है। ये लोग कुशल पशु-चिकित्षक भी होते हैं और देशी दवाओं प्रयोग करते हैं ।
इतकी भाषा और उच्चारण के कुछ  उदाहराण यहाँ' दिये जा रहे है  :-
आपका शुभ नाम वया है ? अपेरो नाम कायी छ:?
क्या धंधा करते हो ? कायी कामकरे छी:?
यह गांधी जी का देश है। ई गादी जीरो देश छ:।
भारत  हमारी  जन्मभूमि है| भारत  हमार जन्मभूमि छ: ।
अहिंसा का व्रत लीजिए । अहिंसारी वृत लेली ।
देश के कानून का सम्मान करे  । देशेर कायं देर इज्जतकाणू ।
 

समाज - व्यवस्था  :

आर्थिक  दुरावस्था के कारण इनकी सामाजिक स्थिति एवं संस्कृतिक स्तर भी बहुत नीचा है। इनका समाज पितृ सत्तात्मक होता है। ये चार समूहों से  विभाजित हैं- चौहान, पवार, राठौर और उर्वा । ये अपने को राजपूतों की वंश/वलियों में एक  शाखा मानते हैं। सभी समूह वहिर्विवाही उपसमूहों से विभाजित है। बनजारा समाज में वैसे  गोत्र  नहीं पाया जाता किन्तु कुछ लोग अपने को कश्यप गोत्र का बतलाते हैं। राय की उपाधि  अपने प्रचलित है। इनसे जाति की विशेषता पाईं जाती है, जनजाति की नहीं ।
एकल या नाभिकीय परिवार का सामान्य प्रचलन है जिसमें  माता-पिता और कुंवारे बच्चे शामिल रहते हैं। विवाह के बाद लड़की ससुराल चली जाती है और लड़का अपना अलग घर बसा लेता है, या कभी उसी मकान में पिता के साथ रहता है किन्तु चौका-चूल्हा अलग होता है। बनजारों में उत्तराधिकार पुरुष-रेखीय होता है अर्थात् पिता की संपत्ति में पुत्रों को ही हक मिलता है; लड़कियों को कोई हिस्सा नहीं मिलता ।
 बनजारे नातेदारी में रवत्त - संबंपी तथा विवाह संबंध होते हैं। कुछ संबंधियों के साथ परिहार- संबंध  तथा कुछ के साथ परिहास-सम्बन्ध  होता है। परिहास संबंध प्रमुखता देवर-भाभी एवं जीजा-साली  तथा परिहार संबंध 'भवः - भसुर के बीच होता है।


जीवन-चक्र:

जन्म, विवाह और मृत्यु जीवन-चक्र के तीन प्रमुख बिन्दु हैं, जो विभिन्न संस्कारों से जुड़े होते हैं। शिशु जन्मा के समय प्रसूता के लिए अलग से एक झोपडी बना कर उसे दूर रखा जाता है। उससे एक माह तक छूत बरती जाती है। कहीं जन्म-छूत इक्कीश  दिनों तक माना जाता है। जन्म के बाद ही ब्राह्मण से पांच  नाम पूछे जाते हैं। उन नामों को बोलने के बाद प्रसूति को स्तन कराया जाता है और लोगों को लपसी का भोज दिया जाता है। पुत्र होने पर लोग ताड़ी की मांग करते हैं और बिरादरीवालों को पिलायी जाती है।

शिशु जन्म के पांच दिनों के बाद एक रस्म की जाती है, जिससे घर के लकड़ीयों से हवन किया जाता है। इस रस्म को 'वेवल' कहते हैं। प्रसूत के सिर पर पानी से भरे  दो लोटे एक दूसरे के ऊपर रखे जाते हैं जो गाय की पूँछ के बाल  की राषहि  से बंधे होते है। फिर एक हँसिया को उसके द्रायेँ अंगूठे से सात वार छुपाया जाता है। गेहू के सात दाने-पानी में भिगो कर माला बनायी जाती है और नवजात शिशु के गले में पहना  दी जाती है। अंत में प्रसूता छोटे-छोटे बच्चों को बुलाकर उनके पांव धोती है और उन्हें प्रणाम करती है। छूत समाप्त होते ही नामकरण साकार संपादित होता है।जब लड़का एक वर्ष का हो जाता है, तब उसका मुंडन  किया जाता है। कुल -देवताको बकरे  की बलि दी जाती है। जाति के पंचों को लपसी और बलि-पशु का मांस खिलाया जाता है। इस रस्म को 'जावल ' कहते है। थोड़ा बड़। होने पर काज-छेदी का रस्म होता है। कर्ण…बेघ के समय बायीं भुजा पर  सूई से पांच  दाग दिये जाते हैं और कुछ मंत्र पढ़े जाते हैं। कन्याओं के युबनारम्भ से सात दिनों तक उन्हें एक सुनिश्चित स्थान में परिसीमित कर दिया जाता है। उसके बाद यह अपने घर लौट आती हैं ।

 

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