शबर
शबर झारखण्ड की एक अल्प संख्यक आदिम जनजाति है। इस जाति का इतिहास बहुत प्राचीन और गौरवशाली है। लाखों वर्षपूर्व त्रेता युग में शबर जाति के अस्तित्व का उल्लेख मिलता है। वेदों में विशेषकर अथर्ववेद में शबरों की चर्चा एक अपरिग्रही एवं सीमित साधन वाली जनजाति के रूप में हुई हैः- “अपरिग्रहा शबरा”। झोपड़ीनुमा कुटी, उसमें बाँस से बनी टोकरियाँ और धनुष-वाण बस इतनी सी सम्पदा पर इनकी जीवनचर्या सम्पादित होती थी। राम क काल में शबरों का अस्तित्व चुनार के अरण्यों से लेकर मध्यप्रदेश के चम्बल के बीहड़ों तक भी व्याप्त था। ये शुद्ध अरण्यक थे। खेती-बारी नहीं करते थे। कंद-मूल, फल-फूल ओर मधु इनका मुख्य आहार एवं आधार था। मधु उतारने में ये बड़े कुशल थे। इनके सन्दर्भ में एक विलक्षण तथ्य उद्घाटित होता है कि ये गहरे मंत्र- विद् होते थे और पौराण साक्षी है कि शबर अथवा भील के वेश में शंकर-पार्वती ने जिस मंत्र-जाल का सृजन किया उसे सबर/शबर तंह ी कहते हैं।