असुर जनजाति

असुर जनजाति

asur

परिचय

जहाँ तक स्मृति जाती है असुर जाति छोटानागपुर की पहाड़ियाँ और इसके आस-पास निवास करती आयी है| इस राज्य की आदिम जनजाति से एक असुर के विषय में आम लोगों को जानकारी अपेछाकृत कम है| वह जाति अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए आवश्यक खाद्य और शरण स्थली की समस्या से लगातार जूझती रहती है| यह आदिम जाति या तो विभिन्न शिप्कृतियों को अपना चुकी हैं या फिर ऐसी तकनीकी और कलाओं को अपना रही हैं, जिसे इन्होने इस चैत्र में रहने वाली अन्य जातियों के साथ लम्बे संपर्क के दौरान सीखा है |

वर्गीकरण

हरी मोहन के मतानुसार असुर प्रोटो-अस्टलाइड है तथा इनकी आसुरी भाषा आस्टोआयेशियाटिक भाषा परिवार से सम्बन्ध रखती है| इन्हे तीन सगोत्रों में विभाजित किया गया है| इन उपसमूहों के नाम हैं | वीर असुर, अगोरिया असुर और बिरजिया असुर | बिरजिया का अर्थ होता है घूम-घूम कर कृषि करने वाला जबकि अगोरिया का अर्थ होता है ऐसी लोग जो आग का काम करते है जैसे लोहा आदि गलना | इसी प्रकार वीर असुर वह लोग है जो जंगलों में निवास करते है या वनवासी है| बिराजियों को इस राज्य में अलग अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिया गया है अतः इसे अन्य असुर जातियों के साथ नहीं मिलाया जा सकता है|

परिवेश और पेशा

असुरों के गोअन आमतौर पर नेतरहाट की ऊँची और चौरस पठारी भूमि पर पाए गए है| इन क्षेत्रों को पाट छेत्र के नाम से जाना जाता है| कई पीढ़ियों से लोहरदग्गा और गुमला के पाट क्षेत्रों  में निवास कर रही असुर जाती का अपने आसपास के परिवेश से बेहद भावनात्मक लगाव सा बन गया है| दस वर्ष और उससे ऊपर के आयुवर्ग वाले असुरों से संपर्क करने पर ७० % लोगों ने यह स्वीकार  किया कि उनके पूर्वज आज से सौ वर्ष पहले एकाकी जीवन बसर करते थे | संचार सुविधा के आभाव में उनके गोंवों  का एक दूसरे के साथ संपर्क नहीं था | वन अधिकारी उनके निवास के आस पास नजर नहीं आते थे तथा उनके पूर्वजों को आज की तरह जंगल में लगे प्रतिबंधों का सामना नहीं करना पड़ता था, इसके परिणामस्वरूप उनके पूर्वज जंगली संसाधनों का उपभोग करने के लिए स्वतंत्र थे | उनकी जरूरतें और उनकी आकांक्षाएं वस्तुतः बहुत सीमित थी, क्युकि वास्तव में बाहरी जगत से उनका संपर्क नाम मात्र का था | आज की तुलना में असुरों के पूर्वजो की आर्थिक स्थिति अधिक बेहतर थी | आज असुरों को जंगल के प्रतिबंधो का सामना करना पड़ रहा है तथा बाहरी जगत से अधिकाधिक संपर्क ने उनकी जरूरतों और आकांक्षाओं को तुलनात्मक रूप से बहुत बढ़ा दिया है| लेकिन आर्थिक बदहाली की वजह से उनकी जरूरतें और उनकी आकांक्षाओं की पूर्ति उनके लिए सपना मात्र बन कर रह गयी है| असुर अभी भी गरीबी रेख के नीचे जी रहे हैं |

आवश्यकताएं

अब तक जिन आंकड़ों पर चर्चा हो चुकी है उनसे स्पष्ट है कि असुर अब एकाकी जीवन व्यतीत नहीं कर रहे हैं साथ ही क्षेत्र की दूसरी जातियों और जनजातियों के साथ संपर्क ने उनकी आवश्यकताओं और आकांक्षाओं को कई गुणा बढ़ा दिया है, परिणामसवरुप असुर आज उन सभी विकास योजनाओं का लाभ उठाने को इक्छुक है जो उनकी जरूरतों और उनकी सांस्कृतिक पृस्ठभूमि के अनुरूप है|  75% असुर इस बात से सहमत है, कि उनकी सामाजिक और आर्थिक विकास के लिए सरकार को सबसे पहले चार बिंदुओं पर मुख्य रूप से ध्यान देना होगा | ये है कृषि, उद्योग, शिक्षा और स्वास्थ्य, लेकिन बाकी बचे हुए 25 % असुरों की धारणा है, कि भविष्य में भी उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति दयनीय ही बानी रहेगी, क्योंकि वे लोग अपने गाँव के आस पास बसने वाले देवी - देवताओं को प्रसन्न कर पाने में विफल रहे है|

कृषि

1971 के जनगणना आंकड़ों के मुताबिक 76.3% असुर कृषक है जबकि 21.1%  कृषक मजदूर | इससे स्पष्ट होता है, कि कृषि उनकी आजीविका का मुख्य - साधन है|

शिक्षा

अपने संपन्न पडोसियों के संपर्क में आकर असुरों ने भी यह महसुस किया है, कि उनका आर्थिक और सामाजिक उत्थान केवल शिक्षा के माध्यम से ही संभव है। 1971 और 1981 के जनगणना आंकड़ों के मुताबिक असुरों में शिक्षा का प्रसार  क्रमशः  5 . 41 और 1 0 .37 था । लेकिन इससे एक बात फिर भी तय है, कि उनमें शिक्षा दर कम है, उससे उनका कोई भला नहीं होने जा रहा है उनके उत्थान के लिए जरूरी है कि उन्हें भी उस क्षेत्र की दूसरी सम्पन्न जातियों और लोगों की तरह शिक्षा मिले जिनके बच्चे स्कूलों और कॉलेजों में अच्छी शिक्षा पा रहे हैं और इनमें से अनेक सरकारी अथवा गैर सरकारी संस्थानों में नौकरी पाकर अपने परिवार को सामाजिक और आर्थिक स्थिति को ऊँचा कर रहे हैं। 1954 में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति आयोग की रिपोर्ट के आधार पर बहुत पहले असुर गांवों में स्कूल खोले जा चुके हैं। राज्य सरकार द्वारा 1955 - 66 में असुरों के लिए कम्युनिंटी ओरिएंटेड स्कीम चालू की गई । इन स्कूलों में नारमा गांव के जोभीपाट और विशुनपुर पुलिस थाना के गुरदारी ग्राम में सखुआपानी में दो आवासीय जूनियर स्कूल को रथापना शामिल है।

आंकड़ों से स्पष्ट है, कि असुरों के लिए आवासीय विद्यालय की शुरुआत 1955 - 56 में ही की गई । कोई भी असुर बालक या बालिका 45 वर्षों में स्नातक बन सकता था । लेकिन आज स्थिति भिन्न है। असुरों में आज भी कोई स्नातक दुर्लभ है। असुरों में मैट्रिक या रनातक तक की शिक्षा प्राप्त लोगों को संठया नगण्य है। इसका प्रमुख कारण है, उनके बीच कोई ऐसी एजन्सी नहीं है, जो उन्हें दिशा निर्देश दे सके । किसी सरकारी या स्वयंसेवी संस्था ने असुरों के बच्चों को प्राथमिक से लेकर रनातक शिक्षा तक निर्देश देने तथा उनकी समस्याओँ में समाधान का बीड़ा नहीं उठाया ।

स्वास्थ्य

शत प्रतिशत असुर जाती के लोग स्वास्थ्य की समस्याओं को लेकर चिंतित है| उनका मानना है कि यदि यह समस्या नहीं सुलझती है, तो कोई भी विकास कार्यो का कुछ अर्थ नहीं है|  रंगांधता और घेघा रोग असुरों में मुख्य रूप से पाए जाते है| इसका कारण देते हुआ श्री गुप्ता ने सर्वेक्षण रिपोर्ट में दर्ज किया है, विटामिन ए की कमी से होने वाला रंगांधता का रोग और आयोडीन की कमी से होने वाला घेंघा रोग सर्वेक्षणके दौरान असुरों में आमतौर पर पाए जाते है|  इन दो प्रमुख रोगों के आलावा असुरों में मलेरिआ, बुखार, पेट की गड़बड़ी और दस्त की बीमारी आदि से पीड़ित रहते है| दूसरों के संपर्क में आकर असुर आधुनिक दवाओं का सेवन की इच्छा रखने लगे है लेकिन पास में किसी अस्पताल में जाकर इनके द्वारा इलाज करवाने जैसी बात शायद ही कभी देखी जाती है |

जन्म

असुरों की यह आम धरना है, कि बच्चे भगवान की देन हैं। यदि कोई स्त्री भगवान को प्रसन्न नहीं कर पाती हैं, तो वह कभी माँ नहीं बन सकेगी । इस तरह की बांझ औरतों को असुर समाज में काफी हेय दृष्टि से देखा जाता हैं। इनके सामाजिक रीती -रिवाज के मुताबिक किसी बांझ औरत को उसका पति तलाक दे सकता है या बच्चे के लिए दूसरी शादी कर सकता है। असुर यह जानते हैं कि नौ माह के गर्भ के बाद स्त्री बच्चे को जन्म देती है, लेकिन वह महीनों की गिनती नहीं जानते हैं, अत: समाज की बड़ी बूढी महिलायें गर्भवती स्त्री के शारीरिक विकास के आधार पर गर्भकाल का आमतौर पर अंदाज़ा लगाती है। गर्भवती स्त्री को जब प्रसव पीड़ा होती है, तो उसे एक कमरे में बंद कर दिया जाता है जिसे असुरों की भाषा में सौरीघर कहा जाता है |

विवाह

असुर सजातीय विवाह करने वाले है| इनमें एक ही गोत्र में विवाह वर्जित है, चूँकि अब ये लोग अपने गोत्रों के नाम भूल चुके है, इसलिए सामान्यत: विवाह के समय गोत्र निर्धारण कर दिए जाता है| असुरों में खून के रिश्ते में विवाह वर्जित है |

असुरों में आरंभिक काल से ही दहेज की प्रथा है| दहेज़ की रकम 5 से 7 रूपये के बीच तय होती है| इसके आलावा वधु के कपड़ों के साथ माता और भाई के कपड़ें देने का भी रिवाज है| इन सभी बातों के आलावा वर वधु दोनों पक्ष अपने नाते और रिश्तेदारों को विवाह के उपलक्ष्य में दावत देते है |

एक असुर एक से अधिक पत्नी रख सकता है लेकिन दूसरी पत्नी आमतौर पर तभी लायी जाती है जब पहली पत्नी से कोई संतान नहीं होती है| एक असुर अपने बड़े भाई की मृत्यु पर उसकी पत्नी से विवाह कर सकता है |

मृत्यु

जहाँ तक बुढ़ापे की बात है, अधिक उम्र के असुर पुरुषों का परिवार में ऊँचा स्थान होता है| चूँकि असुरों का कोई लिखित रीति रिवाज नहीं है, अतः बूढ़े बुजुर्ग सामाजिक रीती रिवाजो के संरक्षक माने जाते है तथा ये रीति रिवाज उनके द्वारा ही एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचते है | असुरों में विश्वास है कि असुर स्त्री या पुरुष को एक निश्चित अवधी के लिए पृथ्वी पर भेजा जाता है और यह अवधी जैसे पूरी होती है, भगवान् उन्हें वापस बुला लेता है| इस प्रक्रिया को असुर मृत्यु कहते है| मृत्यु के बाद असुरों में शव को दफ़नाने की प्रथा है लेकिन इन दिनों इनमें शव के दाह संस्कार का भी प्रचलन देखा जाता है| मृत्यु के दस दिन बाद नाई असुर पुरुषो की हजामत बनता है इसके बाद नाते रिस्तेदारों के लिए भोज आयोजन की प्रथा है |

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