कोल
कोल को झाराखंड की अनुसूचित जनजाति की मान्यता 2083 में मिली है। यह झारखंड की 32 वीं जनजाति है। झारखंड की जनजातियों की सूची में कोल का नया प्रवेश होने के कारण इसके संबंध में आंकड़े संप्रति उपलब्ध नहीं है। कोल शब्द का प्रयोग कब और कैसे हुआ, कहना कठिन है। इस शब्द का प्रयोग झारखंड क्षेत्र के आदिवासियों के लिए, मुख्य रूप से संथाल , मुंडा, हो, खड़िया एवं उराँव, लिए हिन्दुओं द्वारा हुआ । मार्कंडे पुराण में कोल, कालकेय और असुर जाति का उल्लेख हुआ है। किसी में असुर समस्त क्रोलेरियन जाति को कहा जाता था । महाभारत में कोल, किरात, निषाद आदि की चर्चा है। रामायण में सबर, निषाद के साथ कोल का उल्लेख मिलता है। कोलो को सबर जाति का ही अंग मानने के पक्षधर भी हैं। कनिंघम ने कहा है कि कोलों के दल प्राचीन काल से सबर नाम के अन्तर्गत आते थे। पाणिनी का कथन है कि कोल शब्द 'कुल' से निकलता है जो "समस्त" का भाव बोधक है। केम्प्वेल ने मूल का रूप कोला, कोरा (कोड़ा) अथवा कोलर माना है| कैप्पबेल (1866) ने इस शब्द का प्रयोग मुंडारी भाषा परिवार को बोध कराने के लिए था । आस्ट्रिक (मुंडा) भाषा के लिए बिलफोर्ड एवं कर्नल डाल्टन ने भी क्रोलेरियन शब्द के प्रयोग का समर्थन किया है। एक मत यह भी है कि कोल शब्द 'होड़ो' का प्रतिरूप है। कुछ तो यह भी कहते हैं द्रविड्रियन और कोलेरियन एक ही मूल जाति के हैं। कनिंघम ने देश कुलिंद की ' उत्पति कोलेरियन से माना है। यह भी तथ्य है कि बहुत काल तक भारत को कोलोरिया कहा जाता रहा है। शरदचन्द्र राय ने जनजातियों के वर्गीकरण के क्रम में "मुंडा अथवा कोल' का प्रयोग किया है जिससे संकेत मिलता है कि मुंडा और कोल भिन्न नहीं है| वस्तुतः कोल शब्द एक वर्गगत (जेनेरिक) शब्द है जो कभी कई दलों से निर्मित समूचे समुदाय के लिए प्रयुक्त होता था । कालक्रम में भौगोलिक पृथकता एव सांस्कृतिक विलगाव या पिछडापन के अवशिष्ट रूप में रह गए लोग एक स्वतंत्र 'कोल' समुदाय के रूप में चिन्हित हो गए । आज तो झारखंड की अनुसूचित जनजातियो के सुची में एक स्वतंत्र जनजाति के रूप में इसे स्वीकार कर लिया गया है |