बेदिया
परिचय : बेदिया झारखंड की एक उपेक्षित अनुसूचित जनजाति है उसके वर्त्तमान रहन - सहन ,विचार - आचरण ,संस्कार - संस्कृति आदि को देखकर लगता है कि उस पर हिन्दू समाज का गहरा प्रभाव पारा है। वे हिन्दू की तरह रहते भी हैं और अधिकांश अपने को हिन्दू कहते भी हैं। जाति और जनजाति को पृथक करने वाता एक महत्वपूर्ण सामाजिक आधार यह भी है कि जनजातियों में जाति प्रथा का अभाव है किन्तु वेदिया वर्ण-व्यवस्था से ग्रसित है। बेदिया अपने नाम के साथ "वेदिया" और 'मांझी' उपाधि भी धारण करते हैं। मांझी उपाधि वस्तुत: संथाल की है। इनकी ऐतिहासिक परंपरा को खोज पाना कठिन है। प्राचीन साहित्य और अभिलेखों में इनका उल्लेख नहीं मिलता । कुछ सूत्रों से पता चलता है कि वे सर्वप्रथम महूदीगढ़ या मेंहदीगढ़ में थे जहाँ से बाबर के समय भाग कर झारखंड के विभिन्न भागों में फैल गए । यह तो मात्र चार-पांच सौ वर्षो का इतिहास हैं। इसके पूर्व वे कहाँ -कहाँ रहे - इसकी खोज नहीं हो पाईं है। ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि वे विंध्य की ओर से रोहतआस होते हुए महूदीगढ़ पहुँचे थे। एक किवदंती सुनी-सुनाई यह है कि इनका अपना 'वेद' था और इसलिए ये बेदिया कहलाये | इनका वेद आर्यों के वेद से भिन्न था जिसे आर्यो ने नष्ट कर दिया । ऐसा भी कहा जाता है कि बिरहोर के साथ लडाई में परास्त हो भाग चले तो बिरहोरो ने इनका पीछा किया । एक स्थान पर कुछ लोग 'दिया' जला कर पूजा कर रहे थे। जब बिरहोर वहाँ पहुंच कर उनके विषय में पूछा । तभी दिया बुझ क्या और वे चिल्लाने लगे "वे-दीया है 'वे-दिया (बिना दीपक के) । उसी समय से इन जाति का नाम बेदिया पड़ गया । इस किस्से -कहानी में प्रामाणिकता नहीं है। इनके मूल-स्थान और वहीं से इनके प्रवचन की और अनेक कहानियाँ वेदिया समाज में प्रचलित हैं जिनका कोई प्रमाणिक आधार नहीं है। जिस महूदीगढ़ गाँव की चर्चा इनकी कहानियों में हैं, वह बड़का गाँव (हजारीबाग) के पास ही स्थित है| महूदीगढ़ के पास महूदी पहाड़ है और महूदीगढ़ के रास्ते में मुसलमानों का गाँव है। इसकी भौगोलिक स्थिति संकेत करती है कि यह स्थान किसी जनजाति के साव के उपयुक्त है। इससे उस ऐतिहासिक तथ्य का भी संकेत मिलता है कि बाबर ने मुसलमानों का यहाँ बसाया हो और बेदिया को इस क्षेत्र से पलायन करना पड़ा हो । महूदी पहाड़ पर गुफाएँ हितो हैं जो एक ही चट्टान से काट कर बनाई गयी हैं । शारीरिक रचना: शारीरिक रचना में बेदिया झारखंड की अन्य जनजातियों से भिन्न नहीं हैं। वही गहरा सांवला या काला रंग इनका भी होता है, किन्तु नाक चिपटी नहीं होती, बल्कि खडी होती है। होंठ सामान्य होते हैं, न मोटे, न पतले । बाल काले और लहरदार, कद मध्यम, चेहरा प्राय: गोल और डील-डॉल सामान्य होता है। इनकी औसत ऊंचाई 5 फीट 1 इंच होती है। स्त्रियों की ऊंचाई कुछ काम होती है | अधिवास-निवास् : इनका आवासस्थल या क्षेत्र मुख्यत: पहाड़ी एवं बनाच्छादित भूभाग है। बेदिया प्रधानत: राँची, हजारीबाग, बोकारो जिले में पाये जाते हैं। कुछ संख्या में " सिंहभूम, पलामू तथा गिरिडीह जिलों में भी मिलते हैं। इनके गाँव दामोदर नदी के किनारे अधिक मिलते है। इनके आवास वनों से भरे या धिरे होते हैं। इनके निवास क्षेत्र में प्राकृतिक संपदा की बहुतायत एवं जल की उपलब्धता इनके प्राकृतिक वास (हैबिटा) को नियंत्रित एवं प्रभावित करती है। फिर पहाड़ी और बनीय क्षेत्र भी इनके जीवन केविभिन्न पदों पर प्रभाव डालता है। आर्थिक व्यवस्था : वेदिया का आर्थिक आधार कृषि है । उनके पास जमीन थोडी ही है जिस पर कुछ खेती कर लेते हैं । जमीन बहुत उपजाऊ नहीं है । इनकी खेती एक फसली होती है । धान मुख्य उपज है । बारी में मकई उगाते हैं । खेती का तरीका पुराना और पारंपरिक है । अब गेंहू की थोडी खेती होने लगी है । महुआ का उत्पादन खूब होता है । अच्छी खेती के लिए जरूरी साधनों का अभाव है जिसके क्रारण इन्हें अच्छी उपज का लाभ नहीं निल पाता । जीविकोपारजन के अन्य साधन वन्य पदार्थ और मजदूरी हैं । जंगल से तीतर, बटेर, खरगोश, गिलहरी आदि का शिकार कर लेते हैं । साथ ही जंगल से कंद-मूल , फल - फूल साग -पात आदि मिल जाता है जिसका प्रयोग खाने के लिए किया जाता है, किन्तु अधिक होने पर स्थानीय हाट-बाजारों में बेचकर कुछ कमा लेते हैं । वनों से ईधन के लिए जलावन, घर बनाने के लिए लकडियों तथा अन्य उपस्कर-मदान के लिए काठ (काष्ट) आदि मिल जाते है । अनेक प्रकार के साग-पात जैसे चक्रोड़, फुटक्ल, कोयनार वगेरह एकत्र करते हैं, जिन्हें खाते हैं और बेचते भी हैं । जंगल से उपलब्ध खुखडी और रुगड़े से तो अच्छी कमाई हो जाती है । कई तरह के फल, जैसे आम , कटहल, केंद आदि और बीज के रूप में करंज, कुसुम, महुआ, पलास आदि के बीज संग्रह कर बाजार में बेचते है। दोना -पटल और करंज-सखुआ का दतवन बेचते हैं जो आय का एक लधु स्रोत है । केदु पते पर सरकारी नियन्त्रण होने के कारण इससे जाय का स्रोत कम या लगभग बंद हो गया है| संग्रह करने के काम में मजदूर के रूप ने कुछ कमा लेते है । वेदिया नदी नालो से मछली, घोंघा आदि पकड़ कर खाने के काम में लाते है| भैंस, बकरी, सूअर, एवं मुर्गी भी पालते हैं । ऐसा कहा जाता है कि पहले ये जानवरों का मांस खाते थे किन्तु फिलहाल ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता । वेदिया समाज में कोई पारंपरिक उद्योग या खानदारी पेशा-धंधा नहीं पाया जाता | कुछ लोग मजदूरी करते है ।आजीविका के लिए ये उत्तरी बिहार, पश्चिम बंगाल एवं असम की ओर जाते रहते है । उन जगहों पर मिट्ठी काटने का या ईंट -भट्ठों में काम करते है । चाय बगान में भी काम करते पाये गए है । अब इनका बाहर जाना लगभग बंद हो गया है | हाल के दिनों में कुछ वेदिया नौकरी या व्यापार में भी लगे है ।विभिन्न -सरकरी विभागों में ये छोटी नौकरियों में है; कुछ अधिकारी के पद तक पहुँच गए है | सी- सी- एल. की स्थापना से विस्थापित होने के कारण अनेक वेदिया सामान्य नौकरियों बहाल कर लिए गए हैं । कुछ लोगों ने छोटी-मोटी दुकाने खोल ली है |कुछ राजमिस्वी वन गए हैं । कुछ सब्जी के धंधे में जुट गए है | काफी संख्या में केशर में पत्थर तोड़ने का काम करती है । निर्माण कार्य या ट्रक आदि पैर बेदिअ कूली-रेजा का काम भी करते हैं । भोजन -वस्त्र : वेदिया का भोजन मुख्यत: चावल, मकई एवं मादरुआ से बना होता है| भात-सब्जी इनका मुख्य भोजन है। दाल खाने का रिवाज कम है। मांड का उपयोग करते हैं। मकई से बना "घाठा" दिन का भोजन होता है| भात प्राय: रात में खाते हैं। घाठे के साथ अवसर कोई साग सब्जी नहीं होती | मदृआ से 'लेटो' बना कर खाते हैं जिसमें योड़ा चावल भी मिला देते हैं। इनके यहाँ रोटी खाने का प्रचलन नहीं है। अधिकांश वेदिया मांसाहारी होते हैं किन्तु मांस भक्षण का अवसर खास-खास मौके पर ही मिलता है| जंगली कंद-मूल , फल-फूल आदि भी इनका भोज्य पदार्थ है। विभिन्न प्रकार के सागों का प्रयोग पेट भरने के लिए या अन्न से पके भोजन के साथ होता है। भोजन प्राय: मिट्टी के बर्तन में पकाया जाता है किन्तु अब धातु के जैसे- कांसे, अल्युमिनियम और स्टील- के बर्त्तनों का प्रयोग होने लगा है| शीशे का गिलास और कप-प्लेट का प्रयोग भी कुछ घरों में देखने को मिलता है। भोजन प्राय: मिट्ठी के बने चूल्हे पर पकाया जाता है| जलावन के लिए जंगल से चुनकर लायी गयी लकड़ी या गोबर के बने गोयठे का प्रयोग होता है| तरकारी बनाने में महुआ, कुसुम आदि के तेल का व्यवहार होता है। अब खाद्य तेल या डालडा का प्रयोग होने लगा है। मांस-मछली को अधिक तला नहीं जाता, साधारण ढंग से भून -पका लिया जात। है। इनके भोजन बनाने का तरीका बड़ा सरल है। समाजिक व्यवस्था : बेदिया समाज में परिवार महत्वपूर्ण इकाई है। इनका परिवार पितृसत्तात्मक एवं पितृवंशीय होता है। पिता की मृत्यु के बाद पुत्रों को उत्तराधिकार प्राप्त होता है। पैतृक संयति में लड़कियों को हिस्सा नहीं मिलता । लड़का नहीं होने की " स्थिति में लड़की को संपत्ति मिल सकती है, यदि दामाद 'घर जंवाई' बन कर रहे । संतानहींन व्यवित्तकी सम्पत्ति भाई-बहनों में बंट जाती है। पिता की मृत्यु के बाद उसकी विधवा पली के भरण पोषण के लिए कुछ हिस्सा अलग कर दिया जाता है जो उसकी मृत्यु के बाद उसके पुत्रों में बंट जाता है। संपत्ति के बँटवारे में बड़े पुत्र को थोड़ा अधिक हिस्सा मिलता है जिसे जेठ बेटा' कहते हैं। ज्येष्ठग्रेश प्रणाली बहौत पुरानी है और मनुस्मृति में भी इसका उल्लेख मिलता है। अब तो भाइयों में बराबर- हित्सा के लिए संघर्ष भी होता है। लड़कियों के विवाह के पूर्व तक उनके भरण -पोषण का दायित्व परिवार पर होता है। अतिथि सतकार बेदिया समाज की संस्कृति का अंग है। अतिथियों का पैर थाली में जल लेकर धोया जाता है। उसे सादर-सप्रेम अभिवादन करते हैं और फिर खेनी तम्बाकू से स्वागत करते हैं । जीवन चक्र : वेदिया जीवन चक्र में कई संस्कार होते है। हिन्दू घर्मशास्त्रों में सोलह संस्कारों का उल्लेख है। वेदिया समाज में मुख्यत: तीन संस्कार-जन्म, विवाह और मृत्यु के अवसर पर संपन्न होते हैं। जन्म संस्कार प्रथम और महत्वपूर्ण है। विवाह का मुख्य उद्देश्य संत्तानोत्पत्ति द्वारा समाज की वृद्धि माना जाता है। इसलिए स्त्री के लिए गर्भधारण शुभ समझा जाता है। विवाह के बाद तीन वर्ष तक स्त्री गर्भधारण नहीं करती तो वेदिया इसे जादू-टोना या बहुत -प्रेत का प्रभाव समझ कर ओझा-भनंग्रत या सोखा की मदद लेते हैं। जब कुछ लोग इसे रोग मानकर डाक्टर-वैद्य से उपचार कराते है। इसे देवी -प्रकोप मान कर पूजा- पाठ और बलि का भी सहारा लिया जाता है। बांझ स्त्री का परित्याग भी कर दिया जाता है। स्त्री के गर्भवती हो जाने पर कुछ नियमों, निषेधों या वर्जनाओं का पालन करना होता है। अकेले कहीं जाना मना है। खुली जगह में सोना मना है, तेज़ चलना, नदी पार करना और बोझ उठाना भी मना है। शिकार का मांस खाना भी गर्भवती स्त्री के लिए मना है। वेदिया समाज में गर्भस्थ शिशु के लिंग का अनुमान करने का एक अपना अनोखा ढंग है। यदि गर्भवती स्त्री सुस्त रहती है तो गर्भ में लड़का और यदि चंचल रहती है तो लड़की का संकेत माना जाता है। फिर पेट लम्बा, नुकीला दिखे तो लड़का तथा यदि गोल सुडीलन्यौड़ा दिखे तो लड़की होने का अनुमान लगाया जाता है। कुछ हालत में अनुमान सही भी निकलता है। बेड़िया में विवाह संस्कार को बहुत महतवपूर्ण मन जाता है| इनके यहाँ बाल विवाह नहीं होता किन्तु विवाह की आयु निश्चित नहीं होती है| इनमें विवाह अपने गोत्र के बहार ही होता है| विवाह की पहल लड़के वालों क तरफ से होती है| माता - पिता की राय से अगुआ के माद्यम से विवाह तय होता है| लड़की पक्ष वाले को "वधु - मूल्य "दिए जाता है| विवाह तय हो जाने पर वर पक्ष लड़की के गोअन जाकर गोअन - बांधनी करते है| फिर पन्हरा (पितरों को पानी देना ) होता है| विवाह तय करने की इस विधि को चावल (ता उरद) मिलाना कहते है| कही - कही "छिपा - पानी "कहते है |
खंडहर मिलता है जो राजा दलेल सिंह का बतलाया जाता है। एक गुफा पर राजा दलेल 'द्वारा निर्मित होने की बात खुदी हुई है। महुदी पहाड़ की गुफाओं और खंडहर में शिवलिंग स्थापित हैं तथा इसकी चोटी पर "बुढ़वा महादेव' मंदिर है। बहरहाल, निश्चित जानकारी के अभाव में महुदीगढ़ में बेदिया के रहने की बात मानी जा सकती है |
बेदीया की जातीय स्थिति के संबंध में विबाद है। डॉ. नर्मदेश्वर प्रसाद ने अपनी पुस्तक "लैंड एंड द पिपुल आँफ़ छोटानागपुर' में एक जगह बेदिया को संथाल की १२ उपजातियों में से एक उपजाति माना है किन्तु उसी पुस्तक में दूसरी जगह लिखा है- 'कुर्मी मौसेरे भाई' । बेदिया में माझी उपाधि घास्या करने की परिपाटी इस संभावना को देती है कि वे संथाल की एक उपजाति हों । फिर भी निश्चित रूप से कुछ कह पाना हैं। माझी उपाधि धारण करने के ही कारण बेदिया को अनुसूचित जनजाति का प्रमाण-प्राप्त करने में कठिनाई खडी हो गयी थी। हंटर महोदय ने बेदिया को मुंडा से मिलते माना है। अत: प्रामाणिक रूप से इनकी जातीय स्थिति के संबंध में कुछ भी नहीं कहा सकता ।
ये सीधे-सादे, सच्चे किन्तु आलसी होते हैं। एक विलक्षण बात यह है कि इनकी अपनी भाषा या बीती नहीं है जबकि जनजाति की अनिवार्यता एक भाषा होती है। बेदिया अपने निवास क्षेत्र की बोलियों का प्रयोग करते हैं। 99 .8 प्रतिशत गो-जनजातीय भाषाओं, जैसे हिन्दी, नागपुरी, खौरठा, कुरमाती, पंवपरगनिया आदि का प्रयोग करते हैं। मात्र 0.2 प्रतिशत मुंडारी बोलते हैं। अतीत में इनका मुंडा एवं संथाल के साथ निकट संपर्क रहने के बावजूद उनकी भाषाओं को नकारते हुए वे उन स्थानीय बोलियों का प्रयोग करते रहे जो आर्य भाषा परिवार की हैं- यह रहस्मय लगता है। यदि यह मान लिया जाय कि इनकी कोई अपनी भाषा रही होगी जो नष्ट हो गई, तो ऐसी समग्र दिलुप्तता भी विश्वसनीय नहीं लगती । यह खोज का विषय है। पढ़े-लिखे या शहरों में रहने वाले धड़ल्ले से और अच्छी हिन्दी बोल लेते हैं |
अन्य जनजातीय समूह की तरह बेदिया मूलत: जंगलों में जमें-बसे हैं। इनके गुआं नदियों के किनारे मिलते हैं। वन और नदी दो प्राकृतिक संसाधन हैं जिसने इनके समाज को बेहतर और उन्नत बनाया है। जंगलों के संरक्षण के प्रति इनमें जागरुकता है। कच्चे व अच्छे वृक्षो को काटने वालों को दंडित किया जाता है जो आर्थिक जुर्माना या शारीरिक दंड हो सकता है। जंगल के भीतर बसे गाँव, जैसे सुतरी, हलवाधी आदि के लोग सूखी लकडीयों के सिवाय कच्चे पेड़ को नहीं काटते । लधु वन्य पदार्थों का उपयोग-उपभोग ये जरूर करते हैं।
छोटे-मोटे जंगली पशु-पक्षियों को छोड़ वर्जित वन्य पशुओं का शिकार नहीं करते । जंगल के ऐसे भीतरी भाग में जहाँ वन विभाग की जानकारी के बिना पेडों को काटा जा सकता है, शिकार किया जा सकता है, वहाँ फिर भी ऐसा न करना बेदिया का वन के प्रति चेतना व संवेदना का द्योतक है।
बेदिया के प्रत्येक गाँव में "अखरा होता है जहाँ युवक-युवतियों नाचते-गाते हैं और अपना मनोरंजन करते है। इनका घर बहुत साधारण होता है। मकान में प्राय: एक ही बड़ा, लंबा कमरा होता है जिसमें सोते हैं और जिसके एक कोने में बने चूल्हे पर खाना पकाते हैं तथा उसी में मुर्गी -बकरी को भी रखते हैं। बेदिया बकरी को घर के बाहर नहीं रखते ।
बकरी घर में ही 'चागार -गुदरी' या "पाला छलटा' पर रहती है। घर अधिकांतषा : मिट्टी के बने होते हैं। छप्पर खपड़े का होता है। खपड़ा बेदिया खुद तैयार करते हैं। घर में खिड़की प्राय: नहीं होती । वसी-किसी घर में दो कमरे होते हैं ।
दीवालें ईंट या पत्थर की बनने लगी है। इनका घर साफ़-सुथरा होता है। दीवार या फर्श को मिट्टी ,गोबर या लाल मिट्टी से ये पौतते रहते हैं। दीवार के निचले भाग को काले रंग से रंगते हैं। यह रंग गोबर में पुआल की राख मिलाकर बनाया जाता है। दीवालों पर कोई चित्रकारी नहीं की जाती पर लिपाई-पोताई की कलात्मक ढ़ग से होती है।
इनके सामान्य घरेलू उपकरण में कृषि यंत्र, गृहस्थी के उपस्कर, बर्तन आदि होते हैं। खेतीबारी के सामानों में हल-फात्त, जुआठ, सैथ , कुशल, खुरपी, हँसुआ आदि है। घरेलू समानों में कुल्हाडी, सावल, गैंती, खटिया, मचिया , चौकी जादि मुख्य हैं। अब टेबुल-कुर्सियों भी कुछ घरों में मिलती हैं। शिकार के लिए तीर धनुष , गुलेल आदि हर घर में मिलते हैं। सामान या वस्तुओं को रखने के लिए "हड़का' और बक्शा तथा भोजन पकाने के लिए मिट्टी, अल्युमिनियम और स्टील के भी बर्तन आदि पाये जाते हैं। अब अनेक घरों में चीनी मिट्टी के वर्तन, शीशे के गिलास आदि भी मिलते हैं। मिट्टी की कड़ाही की जगह लोहे की कड़ाही ने ले ली है। आधुनिकता लहर ने इनके घरेलू उपादानों में काफी परिवर्तन और परिवर्द्धन ला दिया है।
वेदिया प्राय: एक विवाही होते हैं। इनका परिवार एकल होता है। विवाह होने तक ही संतान ma-बाप के साथ रहती है। विवाह के बाद लड़कियाँ ससुराल चली जाती हैं और लड़के अपनी दुनिया अलग वसा लेते हैं। पैतृक घर के पास या साथ ही सटे नया घर/कमरा बना कर विवाहित दंपत्ति अलग रहने लगते हैं। बेदिया संयुक्त परिवार को अच्छा मानते हैं। शायद इसीलिए लड़के विवाह के बाद अपनी गृहस्थी माता-पिता के आसपास ही वसते-बनाते हैं। बेदिया समाज में बड़े- बुजुर्गों को उचित आदर-सम्मान दिया जाता है। इनके यहाँ पूर्वज-पूजा प्रचलित है। उसी के प्रभाव के कारण शायद वयोवृद्धों के प्रति (आदर - भाव बना हुआ है। वेदिया में अपराध बहुत कम होता है, चोर उचके कम होते हैं। बेदिया समाज में रित्रयों का सम्मानजनक स्थान है। महिलाएँ घरेलू कयों को निपटाने के अलावे कृषि-कार्यो में भी सहयोग करती हैं। पितृसत्तात्मक परिवार में स्त्रियाँ का स्थान दोयम दर्ज का होना स्वाभाविक है फिर भी बेदिया समाज में इनकी स्थिति अच्छी है।
बेदिया में अनेक गोत्र मिलते हैं, जो प्राकृतिक पदार्थों एवं प्राणियों के बोधक होते है| पूरा बेदिया समुदाय एक अन्तर्विवाही कश्यप गोत्र के अंतर्गत आता है और फिर ये अनेक बहीविर्वाही गोत्रों में बँटे हुए हैं। एक ही गोत्र के लड़का-लड़की में विवाह वर्जित है| बेदिया अपने गण - चिन्हो (टोटेम) के प्रति आदर-भाव रखते हैं और उसे किसी प्रकार की क्षति नहीं पहुंचते| बेदिया के कुछ गोत्र इस प्रकार है:--- चिडरा (गिलहरी), २.बैडबार (वट वृच्छ), 3. फेचा (सूअर), 4- काष्ठिम (कछुआ), 5. आहेर (एक मछली), 6. बाम्बी (एक मछली ), 7. महुआ (वृक्ष), 8. डाडी डिबड़ा (एक मछली), 9. सुइया (एक 'पक्छी ' १०. महुकल (एक पक्षी), 11 . सुड्री (पक्षी), 1 2. शेरहार (एक पक्षी) ।
इन बारह गोत्रों में कई में उपगोत्र भी पाये जाते हैं, । जैसा "चिदारा " में तीन उपगोत्र-सेया, साइट एवं नेवला -मिलते हैं। उपगोत्रों का भी विवाह सम्बन्ध स्थापित करने में पूति: स्वतंत्र अस्तित्व स्वीकारा जाता है। पितृवंशियों का समाज होने के कारण पिता का ही गोत्र ।बच्चों को मिलता है। विवाह के बाद रित्रयों का गोत्र गौण हो जात है और उससे उत्पन्न संतति की परिगणना पिता के वंश के आधार पर होती है। भावज-भैंसुर का परिहार संबंध बडा कठोर होता है। भावह अपने भैंसुर के सामने नहीं जाती; परदा करती है और नाम तक नहीं लेती । उनके बीच स्पर्श का तो प्रश्न ही नहीं उठता । केवल विवाह के अवसर पर भैंसूर को कुछ नेग करने के क्रम में भावह का स्पर्श करना पड़ता है जो प्रथम और अंतिम होता है। बड़ी साली सामने जाती है, बात करती है, दुख-सुख पूछती है किन्तु उसके साथ दिल्लगी-मजाक नहीं किया जाता जैसा कि छोटी साली के साथ -'साली आधी घर वाली' कह कर किया जाता है।
प्रसव में किसी प्रौढा महिला या दाई की मदद ली जाती है। प्रसूति गृह में किसी पुरुष को नहीं जाने दिया जाता, पति को भी नहीं । जन्म के बाद बच्चे की नाल (नाड़) काटकर गाड़ दिया जाता है। प्रसव की सूचना बूढी औरत प्रतीकात्मक ढंग से देती है-- लड़का होने पर कहती है, "हलवाहां आया है" और लड़की होने पर कहती है। "रोपनी आई है।"
इसमें होता यह है कि कोई वट्वेंह्वारी लड़की एक थाली में पानी लेकर जाती है, जिसमें लड़का -लड़की के नाम से एक-एक चावल का दाना डाल दिया जाता है। दूब या कोई अन्य चीज से पानी को हिला दिया जाता है। यदि हिलते-हिलते दोनों चावल सट जाते हैं तो विवाह तय हो जाता है। फिर 'अक्षत-सुपारी' भेजकर बंधू - बांधवो , हित-मीत (मित्र) को निमंन्नित किया जाता है। निर्धारित तिथि पर लड़की के घर बारात पहुँचती है। पहले तो लड़का चौराल ' (खाट पालकी) या 'जहाज' (लक्खी का) या बैलगाड्री पर जाता था, अब तो कार, मोटर आदि अन्य साधनों का प्रयोग होने लगा है। बारातियों के स्वागत के बाद कई रस्मे होती है। अंतिम रस्म 'सिंदूर-दान' के साथ विवाह संपन्न हो जाता है। इनके यहाँ विवाह कहीं ठाकुर - नाई , तो कहीं ब्रह्मण के द्वारा कराया जाता है। भोज -भात, खाना पीना चलता है। बाद में विदाई हो जाती है। राह में नदी नाला मिल जाता है तो लड़की को उसका भसुर है गोद में उठा कर पार करता है। यहीं बिन्दु है, जहाँ परिहार संबंध होने पर भी मेंसुर, भवह । का स्पर्श करता है। घर पहुँचने पर वर - वधु का 'परिछन ' होता है और दोनों कुल देवता के'है पास जाकर प्रणग्रम करते हैं। तब से लड़की परिवार का सदस्य हो जाती है। कभी-कभी लड़के बाले लड़की को अपने घर लाकर ही विवाह संपन्न करा लेते हैं। वेदिया के विवाह मेंअनेक सारी रसों हिन्दू समाज की तरह होती हैं। वेदिया में जीवन साथी चुनने या बनाने के कई तरीके हैं किन्तु "आयोजित विवाह' सर्वाधिक प्रचलित है। कभी लड़का-लड़की अपनी मर्जी से प्रेम विवाह कर लेते हैं तो सजातीय होने पर गाँव का प्रधान या आदार कुछ दंड लगा कर विवाह को स्त्रीकृति या मान्यता दे देता है, किन्तु विजातीय होने पर उनका बहिष्कार कर दिया जाता है। इस तरह कि विवाह को 'थुकुर थेनि ' कहा जाता है। वेदिया समाज में पत्नी की मृत्यु के बाद साली के साथ या बड़ेभाई की मृत्यु के बाद भाभी के साथ विवाह करने का रिवाज है। इसे क्रमश:: जीजा - साली विवाह' (सारोरेट) और 'देवर-भौजाई विवाह (लेविरेट) कहा जाता है। इनके यहाँ पुनर्विवाह या विधवा विवाह को भी सामाजिक मान्यता प्राप्त है। तलाक की प्रथा है, किन्तु तलाक बहौत कम होते हैं। स्त्री के बांझ होने पर या दुराचारिप्पी हो जाने पर तथा उसी पुरुष या पति के नपुंसक या दुराचारी हो जाने पर तलाक की स्त्रीकृति मिल जाती है, अकुंशा अभी भी वेदिया समाज को अनुशासित बनाये रखता है।
मृत्यु संस्कार जीवन का अंतिम संस्कार होता है। शव को गाड़ने और जलाने की दोनों … प्रथाएँ हैं जो व्यक्ति की आर्थिक स्थिति एवं सामाजिक हैसियत से जुडी हुई हैं। गरीब अक्शर लाश को गाड़ देते हैं। संपन्न लोग लाश को जलाते हैं ।